पांगणा — विकास खंड के पांगणा गांव में आजकल हर तरफ हर्षोल्लास का वातावरण है। यहां एक माह तक मनाए जाने वाले लाहौल पर्व की पिछले दिनों से तैयारियां चली हैं। सुख, सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक लाहौल पर्व लड़के व लड़कियों की एकता, भाईचारे व परंपरा संरक्षण का एक ज्वलंत उदाहरण है। लाहौल पर्व की शुरुआत कब हुई यह कहना कठिन है, लेकिन लोक मान्यता है कि 1650 ई. से 1663 ई. के मध्य राजा रामसेन की बेटी चंद्रावती ने इस परंपरा को शुरू किया था। महामाया पांगणा के कलात्मक छह मंजिले भवन के एक कक्ष के पूर्वी भाग को गोबर से लीपकर दो सुपारियों को शिव-पार्वती के श्री विग्रह रूप में प्रतिष्ठापित किया जाता है, फिर लड़के व लड़कियां अनेक दिन तक प्रातः सूर्योदय से पूर्व फूलों को चुनने के लिए निकलती हैं। लड़कों और लड़कियों की सामूहिक टोलियां फूल चुनती बार अपनी शैली में यह लोक गीत गाती हैं, अम्मा जावे दीवार, गोद खिलावे दीवार, किल्ली टंगू तलवार पारा ते आया लाहौला रा विरज आया आया घनघोर बसेरा आर-पार लुड्डी पाईये, नाचेयां हो लाहौला बैहणे सदा सुहागण रहेया बैहणे, साओरड़े घर जायां बैहणें। आज-कल फूलों को चुनने के बाद ये बच्चे सुकेत अधिष्ठात्री राज-राजेश्वरी मूल महामाया देवी कोट पांगणा के कक्ष में सुपारी रूपी शिव-पार्वती के श्री विग्रह पर इन पुष्पों को अर्पित कर देती हैं। यह क्रम निरंतर 28 दिन तक चलता है। 29वें दिन माटी से बने शिव-पार्वती के विवाह का आयोजन किया जाता है। सह भोज का आयोजन कर लाहौला के विवाह समारोह को सार्थक बनाते हैं। लाहौल उत्सव के अंतिम दिन देव थला चुराग, महामाया पांगणा और महामाया छंडयारा के देव रथों के साथ लाहौल रूपी शिव-पार्वती की शोभायात्रा निकाली जाती है। संस्कृति मर्मज्ञ डा. जगदीश शर्मा का कहना है कि एक मास तक चलने वाले इस पारंपरिक पर्व में गौरव, सिद्धांत, जतिन, भूषण, पीयूष, आर्यन, विनय, हिमानी, मोनिका, ओनम, सोनम, गुडि़या, सुकृति, अंकिता, विभूति, ताशु आदि व बच्चों की एकता, संकल्प-साधना, कार्य संचालन व्यवस्था लाहौल का सजावट-संयोजन देखते ही बनता है। सुकेत क्षेत्र में शिव-पार्वती के प्रति अत्यंत आत्मीय आस्था को दर्शाती इस गौरवशाली परंपरा के प्रतीक लाहौल पर्व का यह सुव्यवस्थित आयोजन युवा व प्रौढ़ वर्ग के लिए भी सहभागिता परस्पर प्रेम, एकता व निःस्वार्थ सेवा भावना की प्रेरणा का संदेश देता है।
source: DivyaHimachal
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