शिमला — भू-जल संरक्षण में जनता की भागीदारी पर आधारित दो दिवसीय कार्यशाला शिमला स्थित हिप्पा में आयोजित की गई। इसका आयोजन लोक विज्ञान संस्थान देहरादून व हिमाचल प्रदेश सरकार के तत्त्वावधान में किया गया , जिसमें हिमालयी राज्यों के शोधकर्ताओं ने हिस्सा लिया। आयोजन में हिस्सा लेने वाले सभी वर्ग इस बात से सहमत हैं कि जल स्रोत प्रबंधन को सरकारी कार्यक्रमों के द्वारा मसलन मनरेगा के सहयोग से आगे बढ़ाना चाहिए। जलागम परियोजनाओं में भी इसका समावेश आवश्यक होगा। पुणे के वैज्ञानिक डा. हिमांशु कुलकर्णी ने इस बात पर जोर दिया कि केंद्रीय भू-जल बोर्ड द्वारा झरनों को भू-जल का वास्तविक स्रोत मानने की आवश्यकता है। चूंकि हिमालयी राज्यों के 60 फीसदी लोग इन्हीं झरनों पर निर्भर हैं न कि ग्लेशियरों व नदियों पर। सिक्किम के ग्रामीण प्रबंधन व विकास विभाग के अधिकारी सुरेन मोहरा ने अपने राज्य में मनरेगा के तहत धारा विकास की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि किस तरह से उनके राज्य में भू-जल को रिचार्ज किया जा रहा है। हिमाचल इंटिग्रेटेड वाटरशेन मैनेजमेंट प्रोग्राम के निदेशक ने कहा कि किसी भी सरकारी कार्यक्रम की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी प्लानिंग व कार्यक्रम के कार्यान्वयन में जन सहभागिता का कितना हिस्सा रहा है। पीएसआई के डा. सुरेश शर्मा ने नाहन में अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि वहां लोग न केवल झरनों को पुनर्जीवित करने में सफल रहे हैं, बल्कि फसलों और सिंचाई सुविधा का इस तरह से निर्धारण कर रहे हैं, ताकि जल स्रोतों पर इनका ज्यादा दबाव न पड़ सके।
from Divya Himachal
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